मुंबई। मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार का निधन हो गया है। वह 98 साल के थे और काफी समय से बीमार चल रहे थे। उन्होंने मुंबई के हिंदुजा अस्पताल में आखिरी सांस ली। दिलीप कुमार एक स्टार से कहीं ज्यादा थे। कहने को तो वह अभिनेता थे मगर एक्टिंग से दिलों पर राज करना किसे कहते हैं, दुनिया का यह दिखाया था दिलीप कुमार ने। अपनी फिल्मों में विद्रोही से लेकर प्रेमी तक, जिंदगी का कोई पन्ना या किस्सा नहीं था जिसे दिलीप ने पर्दे पर नहीं जिया। और आज दिलीप कुमार सुपर्द ए खाक हो गए। दरअसल दिलीप कुमार के पारिवारिक मित्र फैजल फारुखी ने आज एक्टर के ट्विटर से उनके निधन की जानकारी दी। उन्होंने लिखा- बहुत भारी दिल से ये कहना पड़ रहा है कि अब दिलीप साब हमारे बीच नहीं रहे। दिलीप कुमार के निधन की खबर के बाद से ही इंडस्ट्री में शोक की लहर है।
दिलीप कुमार ने अपने करियर की शुरुआत बतौर बिजनेसमैन से की। वह फिल्मों में आने से पहले फल व्यापारी हुआ करते थे। कुमार बहुभाषाविद थे। पेशावर में जन्में दिलीप कुमार उर्दू, हिंदी, पंजाबी, अवधी, भोजपुरी, मराठी, बंगाली और अंग्रेजी में पारंगत थे। उनकी पत्नी, एक्ट्रेस सायरा बानो ने कहा कि वह कुरान के साथ ही भगवत गीता के साथ अच्छी तरह से वाकिफ थे और उनकी स्मृति से छंदों का पाठ कर सकते थे। उन्होंने अभिनेता की आत्मकथा “द सबस्टेंस एंड द शैडो” की प्रस्तावना में लिखा, “उनकी धर्मनिरपेक्ष मान्यताएं सीधे उनके दिल से और सभी धर्मों, जातियों, समुदायों और पंथों के प्रति उनके सम्मान से निकलती हैं।”
करोड़ों आखों को बुधवार की सुबह सुबह नम कर जाने वाले अभिनेता दिलीप कुमार पाकिस्तान से भारत आकर वैसे ही आ बसे जैसे हिंदी सिनेमा के तमाम दूसरे लोकप्रिय परिवार आकर बसे। हिंदी सिनेमा में उन्हें लाने की पहली कोशिश राज कपूर ने की। लेकिन उन्हें कैमरे के सामने लाने का सेहरा बंधा देविका रानी के सिर। अपने करियर में दिलीप कुमार तमाम किस्सों की वजह बने, लेकिन मुंबई शहर में उन्हें लेकर फसाद होने की नौबत तब आ गई थी जब पाकिस्तान की सरकार ने उन्हें अपने यहां का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशान ए इम्तियाज’ दिया। महाराष्ट्र में तब भी शिवसेना की मिली जुली सरकार थी। लेकिन, शिवसैनिकों के हंगामे के आगे दिलीप कुमार के लिए जैसे ही उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ढाल बनकर खड़े हुए, सारा मसला मिनटों में काफूर हो गया।
गौरतलब है कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज किए गए मुट्ठी भर महान लोगों में से एक, दिलीप कुमार ने “देवदास”, “अंदाज” और “मुगल-ए-आज़म” जैसी क्लासिक फिल्मों से ऐसी छाप छोड़ी कि आज तक उसे कोई मिटा नहीं सका। दिलीप ने भारत की आजादी से तीन साल पहले 1944 में ‘ज्वार भाटा’ से डेब्यू किया था और आखिरी फिल्म 1998 में की। वह नेहरूवादी नायक थे, जो 40 और 50 के दशक के अंत में सिनेमा में एक युवा भारत की समस्याओं से जूझ रहे थे, विशेष रूप से “शहीद” और “नया दौर” में उन्होंने इसकी झलक भी दिखाई।
ये उन दिनों की बात है जब पूरे देश में पाकिस्तान के खिलाफ जबरदस्त गुस्सा था। कारगिल की चोटियों पर भारतीय सेना के तमाम जवान शहीद हो चुके थे। 1999 की गर्मियों में पाकिस्तान की सेना ने जो कुछ कारगिल में किया, उसके बाद मुंबई में दिलीप कुमार के घर के आगे धरने प्रदर्शन शुरू हो गए। शिवसेना ने दिलीप कुमार से मांग की कि वह पाकिस्तान सरकार से मिला ‘निशान ए इम्तियाज’ सम्मान लौटा दें। दिलीप कुमार को शुरू में लगा कि ये कुछ दिनों की बात है और मामला ठंडा पड़ जाएगा। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं।
लगातार दबाव पड़ने पर दिलीप कुमार ने इसके बाद उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी से समय मांगा। बाजपेयी ने उन्हें मुलाकात के लिए बुला भी लिया। दोनों के बीच करीब आधा घंटे तक बातचीत चलती रही। और, इस मुलाकात के बाद दिलीप कुमार जब बाहर निकले तो उनके चेहरे पर संतोष तो था ही एक हिंदुस्तानी होने का फख्र भी था। तब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, ‘फिल्म स्टार दिलीप कुमार की देशभक्ति और देश के प्रति उनके समर्पण को लेकर कोई शक नहीं है।’
इसके अलावा वाजपेयी की तरफ से एक आधिकारिक बयान भी जारी किया गया। जिसके मुताबिक, दिलीप कुमार ने अपने पूरे फिल्मी करियर में देशभक्ति और देश के प्रति अपने समर्पण को साबित किया है। ये अब उनके ऊपर है कि वह व्यक्तिगत हैसियत में मिले इस पुरस्कार को रखना चाहते हैं कि नहीं। किसी को उनके ऊपर इसे वापस करने का दबाव नहीं बनाना चाहिए।”
इसी के बाद दिलीप कुमार ने ‘निशान ए इम्तियाज’ न लौटाने का फैसला किया। और, प्रधानमंत्री के बयान के बाद यहां मुंबई में शिवसेना के हौसले भी पस्त हो गए। इसके बाद फिर कभी किसी मसले पर दिलीप कुमार के ऊपर ‘निशान ए इम्तियाज’ को लेकर कोई तोहमत नहीं लगी। बताते हैं कि प्रधानमंत्री वाजपेयी से मुलाकात के लिए जो चिट्ठी दिलीप कुमार ने लिखी थी, उसमें उन्होंने लिखा, अगर इससे देश का हित होता है तो वह ‘निशान ए इम्तियाज’ लौटाने को तैयार हैं।
1990 के दशक की शुरुआत में, जब मुंबई सांप्रदायिक तनाव से त्रस्त था, कुमार शांति दूत के रूप में उभरे। शहर में 1993 के दंगों के दौरान, कहानियों की भरमार है कि कैसे उन्होंने अपना घर खोला और इसे राहत कार्य के लिए एक कमांड सेंटर बनाया। वह एक बहुत सम्मानित कलाकार थे, जिन्हें 1991 में पद्म भूषण और 2015 में पद्म विभूषण के साथ-साथ 1994 में दादासाहेब फाल्के से सम्मानित किया गया था। वह एक कार्यकाल के लिए राज्यसभा के नामांकित सदस्य भी थे।
1998 में, उन्हें पाकिस्तान सरकार के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार निशान-ए-इम्तियाज से सम्मानित किया गया था। अगले वर्ष, दोनों देशों के बीच कारगिल युद्ध छिड़ गया और शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने पुरस्कार वापस करने की मांग की। लेकिन कुमार ने झुकने से इनकार कर दिया और इस मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिले।