Dadasaheb Phalke: दादासाहब फाल्के (Dadasaheb Phalke) को हिंदी सिनेमा का पितामह कहा जाता है। उन्होंने ना केवल हिंदी सिनेमा की नींव रखी बल्कि सिनेमा को पहली हिंदी भी दी। इंडस्ट्री में बहुत से निर्देशक, निर्माता और अभिनेता हैं जिन्हें दादासाहब फाल्के (Dadasaheb Phalke) से नवाजा जा चुका है। हर साल 30 मई को दादासाहब फाल्के (Dadasaheb Phalke) की जयंती मनाई जाती है। दादा साहब का जन्म 30 मई 1870 को महाराष्ट्र के नासिक में हुआ था। वो एक निर्देशक होने के साथ-साथ मशहूर निर्माता और लेखक भी थे।
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दादा साहब (Dadasaheb Phalke) ने ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ देखी थी। इस फिल्म को देखने के दौरान थिएटर में ही उन्होंने सोच लिया था कि वो भी ईसा मसीह की तरह भारतीय धार्मिक और मिथकीय चरित्रों को रूपहले पर्दे पर जीवित करेंगे। इस काम को करने की चाह में वो अपनी सरकार नौकर भी छोड़कर फिल्म बनाने की राह पर निकल पड़े। दादा साहब पहले से ही फोटोग्राफर थे इसलिए फिल्में बनाना उनके लिए उतना मुश्किल काम नहीं था।
फोटोग्राफर बनने के लिए गुजरात के गोधरा शहर गए थे। वहां दो सालों तक दादा साहब रहे थे लेकिन अपनी पहली बीवी और एक बच्चे की मौत के बाद उन्होंने गोधरा छोड़ दिया था। दादा साहब ने 20-25 हजार रुपये की लागत में हिंदी सिनेमा की शुरुआत की थी। उस वक्त ये लागत काफी ज्यादा थी। इतनी रकम जुटाने के लिए दादा साहब (Dadasaheb Phalke) ने अपने दोस्त से उधार पैसे लिए अपनी जमीन साहूकार को गिरवी में रख दी थी।
दादासाहब ने अपनी मेहनत के बलबूते पर राजा हरिश्चंद्र बनायी। उस वक्त फिल्मों में महिलाएं काम नहीं करना चाहती थी. पुरुष ही नायिकाओं के किरदार निभाया करते थे। दादा साहब फाल्के हीरोइन की तलाश में रेड लाइट एरिया की खाक भी छान चुके थे। लेकिन वहां भी कोई कम पैसे में फिल्मों में काम करने के लिए तैयार नहीं हुई। बाद में फिल्मों में काम करने वाली पहली दो महिलाएं फाल्के की ही फिल्म मोहिनी भष्मासुर से भारतीय सिनेमा में आयी थीं। इन दोनों पहली एक्ट्रेस का नाम था दुर्गा गोखले और कमला गोखले।
दादासाहब फालके (Dadasaheb Phalke) ने कुल 95 फिल्में और 26 लघु फिल्में बनाई थीं। ‘गंगावतरण’ उनकी आखिरी फिल्म थी, जो साल 1937 में आई थी। ये उनकी पहली और आखिरी बोलती फिल्म भी थी।