नई दिल्ली। फिल्म बेहतर है या फिर बेहतरीन ये समझने और सोचने में कभी कभी -किसी -किसी फिल्म में समय लग जाता है। कई फिल्मे तो ऐसी भी बन जताई है जिसमे समझ ही नहीं आता है कि किसी थी ये फिल्म। दरअसल हम भी आपको एक ऐसी ही फिल्म में बारे में बताने जा रहें है। फहाद फ़सील को मलयालम फिल्मों ने फिलहाल एटलस बना दिया है। फिल्म का पूरा बोझ वो अपने कांधों पर उठाते हैं। अपनी अभिनय शैली की वजह से उन्हें पसंद तो बहुत किया जाता है लेकिन एकाध बार उन्हें भी अधिकार देना पड़ेगा कि उनकी चुनी हुई फिल्म उतनी प्रभावित न कर सके। मालिक के साथ ऐसा ही हुआ है। फिल्म में कई बातें बहुत अच्छी हैं लेकिन फिर भी पूरी फिल्म का प्रभाव अधूरा है। फिल्म पसंद आते आते रह जाती है। मन में जाने किस बात का मलाल रह जाता है। एक बेहतर और बेहतरीन फिल्म के बीच में अटकी है मालिक।
दरअसल फिल्म पहले दुलकुर सलमान करने वाले थे लेकिन किस्मत की बात है कि महेश की पहली दो फिल्मों (टेक ऑफ और सी यू सून) के हीरो फहाद ही अंत में मालिक बने। फिल्म के लिए फहाद ने करीब 12 किलो वज़न घटाया था। केरल में बड़े उद्योगपतियों द्वारा समुद्र किनारे की ज़मीन हथियाने की कवायद चलती रहती है और रेत की अवैध खुदाई के कारोबार को रोकने की कोशिश वर्षों से चल रही है। महेश ने पटकथा केरल के अवैध धंधों के एक ऐसे ही व्यापारी की कहानी से प्रेरित हो कर लिखी थी जो इस सिस्टम के खिलाफ अपने गाँव के लोगों को बचाना चाहता है। फिल्म में सुनामी से आयी तबाही का मंज़र भी दिखाया है जो समुद्र को हथियाने के परिणाम स्वरुप आती है।
इसका प्रोमो जब रिलीज़ किया गया था तो ये फिल्म, एक्शन थ्रिलर और क्राइम थ्रिलर का मिला जुला स्वरुप लग रही थी जबकि फिल्म एक पोलिटिकल ड्रामा है जिसकी पृष्ठभूमि में जातिगत मतभेद का बड़ा धब्बा नज़र आता है। अहमद अली सुलेमान (फहाद फ़सील) अर्थात अली इक्का (मलयालम भाषा में मुस्लिम जाति में बड़े भाई को कहा जाता है) अपने दोस्त डेविड क्रिस्टोदास (विनय फोर्ट) के साथ स्कूल के दिनों से ही अवैध कामों में घुस जाता है। जैसे जैसे तरक्की होती जाती है उसके अंदर का समाज सेवक प्रस्फुटित होने लगता है। मस्जिद के बाहर के कचरे का ढेर उठवाने से लेकर वहां अपने पिता के नाम का स्कूल बनवाने तक की कवायद करते करते वो अपने गांव का स्वयंभू मसीहा बन जाता है और एक लोकल गुंडे का खून कर देता है। उसकी टीचर माँ उस से नाराज़ हो कर उस से अलग रहने लगती है।
निर्देशक महेश के साथ सिनेमेटोग्राफर सानू जॉन वर्गीस की तारीफ करनी होगी जिन्होंने मालिक को एक टिपिकल गैंगस्टर फिल्म होने से बचा लिया। कोई एक शॉट ऐसा नहीं है जिसमें कैमरा “फ़िल्मी” अंदाज़ प्रस्तुत करता है। अपने आस पास की घटनाओं को एक अनछुयी नज़र से देखते देखते कैमरा कहानी में शामिल हो जाता है। फिल्म के पहले सीन में ही दो कुत्तों को फेंके हुए खाने पर मुंह मारते हुए दिखाया गया है और वहीँ से दो लोग एक देगची भर कर मटन बिरयानी ला रहे हैं। एक सीन में ही कहानी का टोन समझ आ जाता है। फिल्म के एडिटर महेश रामनारायण खुद हैं। फिल्म लम्बी है। बहुत सारी घटनाएं हैं, 3 फ़्लैश बैक हैं, 1960 से 2002 तक की समय दिखाया गया है – ऐसी कई बातें हैं जो बतौर एडिटर महेश ने बखूबी कहानी में जोड़ रखी हैं। बीच बीच में कुछ सीन थोड़े ढीले हैं क्योंकि उसमें डायलॉग लम्बे हो गए हैं। बतौर एडिटर महेश की सफलता है कि फिल्म से आप ऊब नहीं सकते।
अली इक्का और डेविड तरक्की करने लगते हैं और अवैध धंधे में उनका तीसरा साथी राजनीतिज्ञ अबूबकर (दिलीश पोथन) उनके पीछे छुप कर सरकारी प्रोजेक्ट्स के नाम पर गांव के लोगों को बेदखल करने के प्लानिंग करता रहता है। सुलेमान गांव वालों की तरफ से खड़ा हो कर अबूबकर को ये सब करने नहीं देता तो एक लम्बी प्लानिंग के तहत सुलेमान और डेविड के बीच मुस्लिम और क्रिस्चियन धर्म के नाम पर फूट डाली जाती है। सुलेमान अपने मित्र डेविड की बहन रोज़लीन से प्रेम और शादी करता है लेकिन धर्म के नाम की लड़ाई आखिर सुलेमान और डेविड को अलग कर देती है। एक लम्बे समय तक सुलेमान पूरे गाँव के लिए काम करता रहता है लेकिन आखिर में उसके गैर कानूनी धंधे से फायदा उठाने वाले नेता उसके पतन का कारण बन जाते हैं। जेल में उसकी मौत हो जाती है।
कहानी आसान लगती है। निर्देशक महेश रामनारायण ने ही लिखी है। मालिक एक फिल्म नहीं कही जा सकती बल्कि एक छोटे से लड़के के बड़े हो कर अवैध धंधों में सफल होने की और अपने गांव के लोगों के लड़ने की कहानी है। किसी एक पात्र पर फोकस न रख कर लेखक ने कई महत्वपूर्ण किरदारों की मदद से कहानी को आगे बढ़ाया है। फहाद का अभिनय हमेशा की ही तरह अच्छा है। आँखों से अभिनय करते हैं और हर किरदार में अपने नए मैनरिज़्म अपनाते हैं। इस फिल्म में बोझ से झुके और पुलिस से खायी मार से टूटे पैर की लंगड़ाहट का समावेश किया है। किसी गैंग के लीडर को इन्सुलिन पेन से इंजेक्शन लेते देख कर उसके मानवीय होने का एहसास होता है।
हज यात्रा पर जाने से पहले वो अपनी बेटी को कामों की फेहरिस्त थमता है, वो भी उसके हाथ पर लिखी हुई जिसका वो मोबाइल से फोटो खींचने के लिए कहता है। फहाद की माँ का किरदार निभाया है वरिष्ठ अभिनेत्री जलजा ने। वो दीवार की निरुपा रॉय नहीं हैं जो बेटे को मॉरल लेक्चर देती रहती है। वो अग्निपथ की रोहिणी हट्टंगड़ी भी नहीं हैं जो बेटे को ताने मार मार के ज़लील करती रहती है। वो बस अपने बेटे की हरकतों की वजह से अलग हो जाती है लेकिन अपने बेटे को बचाने के लिए खून करने वाले से जा कर मिलती हैं और उसे अपने बेटे की कहानी सुनाती है।
सुलेमान की पत्नी रोज़लीन के किरदार में हैं निमिषा सजयन जिनका किरदार एक किशोरी से अधेड़ उम्र तक का सफर सुलेमान के साथ तय करता है। एक दृश्य में शादी के बाद सुलेमान उनसे कहता है कि मैं चाहता हूँ कि हमारे बच्चे मुस्लिम धर्म अपनाएं, इसके लिए मुझे तुम्हारी इजाज़त चाहिए। निर्मल प्रेम का दृश्य, फिल्म की कहानी में बहुत महत्वपूर्ण था। निमिषा को हमने हाल ही में नायट्टु और द ग्रेट इंडियन किचन में देखा था। उनकी एक्टिंग इस फिल्म में भी तारीफ़ के काबिल हैं क्यों कि फिल्म में वो नेपथ्य में ज़्यादा नज़र आती हैं और अपने पति के लिए पूरे दम ख़म से सिस्टम से भिड़ भी जाती हैं। जोजू जॉर्ज जो मलयालम फिल्मों में आलू की सब्ज़ी हैं। हर बार परोसे जाते हैं और स्वाद इतना बढ़िया होता है कि देखने वालों को मज़ा आ जाता है। इस फिल्म में वो सुलेमान के गाँव के कलेक्टर बने हैं जो सुलेमान के समाज सेवा के कामों की वजह से उसका साथ देते है लेकिन सुलेमान अपने गाँव के लिए ज़्यादा प्रतिबद्ध रहता है। राजनीति की वजह से सुलेमान पर हमला होना, सुलेमान के बेटे को पुलिस द्वारा मार दिया जाना, और ऐसी कई घटनाओं में कलेक्टर अनवर अली के किरदार में जोजू जॉर्ज ने छोटे से किरदार से फिल्म में प्रभाव डाला है।
फिल्म में देखने के लिए बहुत कुछ है। समय ज़्यादा लगता है। कहानी बहुत सी छोटी छोटी कहानियों को मिल कर बनी हैं इसलिए एक जीवन परिचय के अंदाज़ में बहती है। बिना फालतू ड्रामा और डायलॉगबाज़ी के एक सामान्य से लड़के को अवैध धंधों का व्यापार स्थापित करते देखने से लेकर, जातिगत दंगे, अंतर्धार्मिक प्रेम कहानी और विवाह, बच्चे को खोना, पुलिस की ज़्यादती, राजनीति की शतरंज और ऐसे कई पहलू हैं जो मालिक को जोड़ के रखते हैं। देखिये, अच्छी फिल्म है।